गाँव की सरकार या ‘कॉन्ट्रैक्ट’ का व्यापार? आरक्षित सीटों पर ‘किराये’ के प्रत्याशी और कुर्सी पर ‘प्रतिनिधि’ का कब्जा





– लोकतंत्र का सौदा: स्टाम्प पेपर पर तय हो रही प्रधानी, असली हकदार सिर्फ रबर स्टैम्प बनकर रह गए

– पंचायती राज एक्ट की उड़ रही धज्जियां, महिला प्रधान घर में और बैठकों में ‘पति-राज’ का सोलो शो

फतेहपुर। ग्राम पंचायत चुनाव की सुगबुगाहट शुरू होते ही गाँवों की ‘चौपालों’ से ज्यादा हलचल ‘वकीलों के बस्तों’ और ‘नोटरी’ की दुकानों पर है। लोकतंत्र के इस महापर्व में अब जनमत से ज्यादा ‘जुगाड़’ और ‘धनबल’ हावी होता दिख रहा है। चुनाव जीतने के लिए अब दो नए और खतरनाक ट्रेंड सामने आए हैं—पहला, ‘कॉन्ट्रैक्ट’ पर प्रत्याशी खड़ा करना और दूसरा, जीतने के बाद चुने हुए प्रतिनिधि की जगह ‘नकली प्रतिनिधि’ (पति या पुत्र या अन्य कोई का) का राज चलाना। वैसे यह रिपोर्ट बताती है कि कैसे जमीनी स्तर पर लोकतंत्र को ‘हाईजैक’ किया जा रहा है। इसका मकसद प्रशासन को जगाना और वोटरों को यह एहसास दिलाना है कि उनका एक गलत वोट 5 साल के लिए गाँव को पीछे धकेल सकता है।

‘कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग’ की तर्ज पर ‘कॉन्ट्रैक्ट कैंडिडसी’

जिस तरह कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में ज़मीन किसी और की और फसल किसी और की होती है, ठीक वैसे ही अब प्रधानी भी ‘कॉन्ट्रैक्ट’ पर दी जा रही है। सूत्रों के मुताबिक, जैसे ही किसी गाँव की सीट आरक्षित (एससी/एसटी या ओबीसी) घोषित होती है, गाँव के रसूखदार और बाहुबली नेता जो खुद चुनाव नहीं लड़ सकते, वे एक ‘योग्य लेकिन गरीब’ चेहरा तलाशते हैं। इसके बाद शुरू होता है सौदेबाजी का खेल। जानकारों का कहना है कि पर्दे के पीछे 10 रुपये से लेकर 100 रुपये के स्टाम्प पेपर पर एक अघोषित समझौता (एग्रीमेंट) होता है। इसमें चुनाव का पूरा खर्च बाहुबली उठाता है। बदले में शर्त यह होती है कि जीतने के बाद प्रधानी की ‘पावर’, विकास कार्यों के ठेके और ‘कमीशन’ पर बाहुबली का हक़ होगा। चुना गया प्रधान सिर्फ़ सरकारी रजिस्टर पर दस्तखत करने वाला ‘रबर स्टैम्प’ बनकर रह जाता है। बदले में उसे एक तय मासिक रकम या एकमुश्त पैसा दे दिया जाता है।

बैठकों में ‘प्रतिनिधि’ का सोलो शो

दूसरा बड़ा मुद्दा ‘प्रधान पति’ या ‘प्रधान प्रतिनिधि’ कल्चर का है। पंचायती राज अधिनियम में ‘प्रधान प्रतिनिधि’ जैसा कोई संवैधानिक पद नहीं है। बावजूद इसके, हकीकत यह है कि ब्लॉक से लेकर तहसील दिवस तक महिला प्रधानों की कुर्सियों पर उनके पति, बेटे, ससुर या कोई और काबिज़ नज़र आते हैं।
कई मामलों में देखा गया है कि चुनी हुई महिला प्रधान घर के कामकाज में व्यस्त रहती हैं, जबकि उनके पति, ससुर, पुत्रया कोई अन्य ‘प्रधान जी’ का टैग लगाकर सरकारी बैठकों में ‘सोलो शो’ करते हैं। अधिकारी भी कई बार व्यावहारिक दिक्कतों का हवाला देकर इस गैर-कानूनी चलन को मूक सहमति दे देते हैं।
क्या कहता है नियम? पंचायती राज विभाग के स्पष्ट निर्देश हैं कि ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत या ज़िला पंचायत की बैठकों में सिर्फ़ निर्वाचित सदस्य ही भाग ले सकते हैं। यदि कोई महिला या आरक्षित वर्ग का प्रत्याशी जीतता है, तो शपथ से लेकर विकास कार्यों के प्रस्ताव तक, सब कुछ उसे ही करना होगा। उसके रिश्तेदार को बैठक में बैठने का कोई अधिकार नहीं है।


अधिकारियों का रुख

इस विषय पर प्रशासन का कहना है कि इस बार नियमों का कड़ाई से पालन कराया जाएगा। फतेहपुर जनपद के डीपीआरओ व सीडीओ कार्यालय के सूत्रों के अनुसार, ऐसी शिकायतों पर नज़र रखी जा रही है। यदि किसी बैठक में अनाधिकृत व्यक्ति (पति या प्रतिनिधि) पाया गया, तो उसे बाहर करने के साथ-साथ संबंधित प्रधान के खिलाफ भी कार्रवाई की जा सकती है।


वोटर भी जिम्मेदार?

बुद्धिजीवियों का मानना है कि यह चलन सिर्फ़ नेताओं की वजह से नहीं, बल्कि वोटरों की चुप्पी से भी बढ़ा है। जब गाँव वाले यह जानते हुए भी कि उम्मीदवार ‘डमी’ है, उसे वोट देते हैं, तो वे अनजाने में अपने गाँव के विकास की चाबी किसी ‘मालिक’ को सौंप रहे होते हैं।